भारत शासन अधिनियम, 1919
वर्ष 1918 में भारत के राज्य सचिव एडविन सेमुअल मांटेग्यू (Edwin Samuel Montagu) और वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने संवैधानिक सुधारों की अपनी योजना तैयार की थी , जिसे मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के नाम से जाना जाता है, इसी उद्देश्य वर्ष 1919 में भारत शासन अधिनियम पारित किया गया था जो 1921 से लागू हुआ था। इस अधिनियम का उद्देश्य शासन में भारतीयों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना था। इसी अधिनियम के साथ केंद्र और प्रांतीय स्तरों पर शासन में सुधारों की शुरुआत हुई।
भारत शासन अधिनियम, 1919: प्रमुख प्रावधान
- प्रान्तों में द्वैध शासन लागू किया गया, द्वैध शासन (Diarchy) को आठ प्रांतों में लागू किया गया था जिसमें असम, बंगाल, बिहार और उड़ीसा, मध्य प्रांत, संयुक्त प्रांत, बॉम्बे, मद्रास और पंजाब प्रांत शामिल थे।
- द्वैध शासन व्यवस्था के तहत प्रांतीय सरकारों को अधिक अधिकार प्रदान किये गए थे।
- प्रान्तीय विषयों को दो भागो में विभाजित किया गया, आरक्षित एवं हस्तान्तरित। आरक्षित विषयों का प्रशासन उन मंत्रियो की सहयाता से गवर्नर करता था, जो विधानमण्डल के निर्वाचित सदस्य थे, परन्तु उनकी पद स्थापना व पदच्युति गवर्नर की इच्छा पर आधारित थी। हस्तान्तरित व आरक्षित विषयों का विभाजन भी दोषपूर्ण था।
- प्रान्तों के हस्तान्तरित विषयों पर भारत सचिव का नियंत्रण कम हो गया, जबकि केन्द्रीय नियंत्रण बना रहा।
- भारतीय कार्य की देखभाल के लिए एक नया अधिकारी 'भारतीय उच्चायुक्त' नियुक्त किया गया। इसे भारतीय राजकोष से वेतन देने की व्यवस्था की गयी।
- गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी में 8 सदस्यों में से 3 भारतीय नियुक्त किये गये तथा इन्हें विधि, श्रम, शिक्षा, स्वास्थ व उद्योग विभाग सौंपे गये।
- विषयों को पहली बार केन्द्रीय व प्रान्तीय भागों में बांटा गया। राष्ट्रीय महत्व के विषयों को केन्द्रीय सूची में शामिल किया गया था, जिस पर गवर्नर-जनरल सपरिषद क़ानून बना सकता था।
- विदेशी मामले रक्षा, राजनीतिक संबंध, डाक और तार, सार्वजनिक ऋण, संचार व्यवस्था, दीवानी तथा फ़ौजदारी क़ानून तथा कार्य प्रणाली इत्यादि सभी मामले केन्द्रीय सूची मे थे। प्रान्तीय महत्व के विषयों पर गवर्नर कार्यकारिणी तथा विधानमण्डल की सहमति से क़ानून बनाता था।
- प्रान्तीय महत्व के विषय थे- स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, भूमिकर प्रशासन, शिक्षा, चिकत्सा, जलसंभरण, अकाल सहायता, शान्ति व्यवस्था, कृषि इत्यादि।
- केन्द्र में द्विसदनी विधान सभा राज्य परिषद में स्त्रियाँ सदस्यता के लिए उपयुक्त नहीं समझी गयी थी, केन्द्रीय विधानसभा का कार्यकाल 3 वर्षों का था, जिसे गवर्नर-जनरल बढ़ा सकता था। वायसराय को विधायिका को संबोधित करने का अधिकार था।उसे बैठकों को आहूत करने, स्थगित करने या विधानमंडल को निरस्त या खंडित करने का अधिकार प्राप्त रहा।
- साम्प्रदायिक निर्वाचन का दायरा बढ़ाकर सिक्खों तक विस्तृत कर दिया गया।
- केन्द्रीय विधान मण्डल सम्पूर्ण भारत के लिए क़ानून बना सकता था। गवर्नर-जनरल अध्यादेश जारी कर सकता था तथा उसकी प्रभाविता 6 महीने तक रहती थी।
- बजट पर बहस हो तो सकती थी, पर मतदान का अधिकार नहीं दिया गया था।
- इसी अधिनियम के तहत सिविल सेवकों की भर्ती के लिए लोक सेवा आयोग के गठन का प्रावधान किया गया।
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