वैदिक संस्कृति (Vedic culture in Hindi)
By BYJU'S Exam Prep
Updated on: September 13th, 2023

सिंधु सभ्यता के पतन के बाद वैदिक संस्कृति (Vedic culture) का उदय हुआ था। वैदिक संस्कृति एक ग्रामीण संस्कृति थी। जो 1500 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व तक मानी जाती है। वैदिक संस्कृति (Vedic culture) का निर्माता आर्यों को माना जाता है। ‘आर्य’ शब्द का शाब्दिक अर्थ श्रेष्ठ, कुलीन आदि होता है। 1,500 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व के समय को वैदिक युग के नाम से जाना जाता है। इस काल में चार वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद की रचना हुई थी। वैदिक कल को दो भागों ऋग्वेदिक काल (1500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व) और उत्तरवैदिक काल (1000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व) में बाटा गया है।यहां, हम वैदिक संस्कृति (Vedic culture) की पूरी अध्ययन सामग्री प्रदान कर रहे हैं, उम्मीदवार नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करके वैदिक संस्कृति (Vedic culture) से सम्बंधित सम्पूर्ण जानकारी का पीडीएफ़ हिंदी में डाउनलोड कर सकते हैं।
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वैदिक संस्कृति (Vedic culture)
वैदिक काल प्राचीन भारतीय संस्कृति का एक काल खंड है, जिस दौरान वेदों की रचना हुई थी। वेदों से प्राप्त जानकारी के आधार पर इसे वैदिक सभ्यता का नाम दिया गया था। वैदिक सभ्यता आर्यों द्वारा स्थापित एक ग्रामीण सभ्यता थी। वैदिक संस्कृति सिन्धु सभ्यता के बाद अस्तित्व में आई थी। वैदिक सभ्यता के बारे में जानकारी प्राप्त करने का मुख्य स्रोत चारों वेद, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ इत्यादि हैं। ऋग्वैदिक संस्कृति के विषय में मुख्यतः जानकारी ऋग्वेद के माध्यम से प्राप्त होती है, जबकि उत्तर वैदिक संस्कृति के बारे में जानकारी प्राप्त करने के मुख्य स्रोत सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के साथ-साथ उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक इत्यादि हैं।
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वैदिक काल को दो भागों में बांटा जा सकता है –
1. त्रग्वेदिक काल (1500 ई. पू. से 1000 ई. पू.)
2. उत्तर वैदिक काल (1000 ई. पू. से 600 ई.पू.)
वैदिक संस्कृति (Vedic culture): त्रग्वेदिक काल (1500 ई. पू. से 1000 ई. पू.)
- ऋग्वैदिक काल की सम्पूर्ण जानकारी ऋग्वेद से प्राप्त होती है। ऋग्वेद चारों वेदों में से सबसे प्राचीन वेद है। ऋग्वेद के वैदिक मंत्रों का आख्यान करने वाले और कर्मकांड करवाने वाले पुरोहित को ‘होतृ’ कहा जाता था।
- ऋग्वेद में कुल 25 नदियों का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद के दसवें मंडल के नदी सूक्त में 21 नदियों का उल्लेख है। इनमें सबसे पहले स्थान पर गंगा नदी का उल्लेख मिलता है।
- ऋग्वेद के अनुसार, सिंधु आर्यों की सबसे प्रमुख नदी मानी गई है, जबकि सरस्वती को सबसे पवित्र और दूसरी सबसे महत्वपूर्ण नदी माना गया है। सरस्वती नदी ऋग्वेद में ‘नदीतमा/मातेतमा/देवीतमा ’ अर्थात ‘नदियों की माता कहा गया है। सरस्वती नदी राजस्थान के वर्तमान रेगिस्तानी क्षेत्र में बहती थी, लेकिन अब यह नदी विन्सन नामक स्थल में विलुप्त हो चुकी है।
- ऋग्वेद में अनेक वर्तमान नदियों के वैदिक नामों का उल्लेख हैं। इसमें सतलज को शतुद्री, झेलम को वितस्ता, रावी को परुष्णी, व्यास को विपाशा, गंडक को सदानीरा, काबुल को कुभा, चिनाब को अस्किनी, स्वात को सुवास्तु जैसे नामों से संबोधित किया गया है।
- ऋग्वैदिक काल में परिवारों के समूह को ‘कुल’ कहते थे, जो प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होती थी। ऋग्वेद के अनुसार ग्राम का प्रधान ग्रामणी होता था और अनेक ग्रामों के समूह को विश कहा जाता था, जिसका प्रधान विशपति होता था। इसके अलावा, अनेक विशों का समूह मिलकर जन का निर्माण करता था और जन के मुखिया को जनपति या राजा कहते थे। ऋग्वेद में जन शब्द का 275 बार उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद में हमें जनपद शब्द का उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता है।
- ऋग्वेद में सभा, समिति, विदथ और गण नामक प्रशासनिक संस्थाओं का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद में सभा का उल्लेख 8 बार, समिति का उल्लेख 9 बार, विदथ का उल्लेख 122 बार और गण का उल्लेख 46 बार किया गया है।
- ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में एक विराट पुरुष द्वारा चार वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार, विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण की, भुजाओं से क्षत्रिय की, जांघों से वैश्य की और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई है।
- ऋग्वैदिक कालीन समाज पितृसत्तात्मक हुआ करता था। इस दौरान पिता की संपत्ति का उत्तराधिकारी सदैव पुत्र ही होता था। इस काल में नारी को माता के रूप में अत्यधिक सम्मान प्राप्त था। ऋग्वैदिक काल में सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियां मौजूद नहीं थी।
- वैदिक काल में इंद्र को सबसे प्रमुख देवता माना गया है। ऋग्वेद के दूसरे मंडल में इंद्र का सबसे अधिक 250 बार उल्लेख किया गया है। इंद्र के बाद अग्नि को दूसरा प्रमुख देवता माना गया है और अग्नि का उल्लेख ऋग्वेद में 200 बार किया गया है। इसके अलावा, ऋग्वेद में वरुण, सोम, मरूत, पर्जन्य, सूर्य पूषन इत्यादि देवताओं का उल्लेख भी मिलता है।
- ऋग्वैदिक कालीन आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन होता था। इस दौरान कृषि का पूर्ण विकास नहीं हो पाया था और ये लोग घुमक्कड़ जीवन जीते थे।
- ऋग्वेद में गाय का 176 बार, बैल का 170 बार और घोड़े का 215 बार उल्लेख है। ऋग्वेद में हल के फाल का उल्लेख भी मिलता है। कृषि योग्य भूमि को ऋग्वेद में ‘उर्वरा’ कहा गया है।
वैदिक संस्कृति (Vedic culture): उत्तर वैदिक काल (1000 ई. पू. से 600 ई.पू.)
- उत्तर वैदिक काल के बारे में जानकारी सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के साथ ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यक व उपनिषद से प्राप्त होती है। सामवेद का उच्चारण करने वाले पुरोहित को ‘उदगातृ’, यजुर्वेद के मंत्रों के माध्यम से कर्मकांड करवाने वाले पुरोहित को ‘अध्वर्यु’ और अथर्ववेद का उच्चारण करने वाले पुरोहित को ‘ब्रह्म’ कहा जाता था।
- उत्तर वैदिक काल में विभिन्न राजा एक दूसरे के जन पर हमला करते थे और उसे अपने जन में मिलाकर जनपद का निर्माण करते थे। यानी इस काल में विभिन्न जनों के मिलने से जनपदों का निर्माण होने लगा था।
- इस दौर में राजा निरंकुश नहीं होते थे। सभा और समिति राजा पर नियंत्रण रखती थी। अथर्ववेद में सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है। अथर्ववेद में ही इस बात का विवरण मिलता है कि इसके द्वारा राजा का चुनाव होता था। समिति के अध्यक्ष को ईशान कहा जाता था। अथर्ववेद में सभा को नरिष्ठा कहा गया है।
- इस काल में भी राजा को स्थाई सेना नहीं रखते थे। उत्तर वैदिक काल में नियमित कर प्रणाली के विकास के संकेत मिलते हैं। जबकि ऋग्वैदिक काल में लोगों द्वारा ‘बलि’ नामक स्वैच्छिक कर दिया जाता था।
- यजुर्वेद में उच्च पदाधिकारियों को रत्निन या रत्नी नाम से संबोधित किया गया है। ये पदाधिकारी राज्याभिषेक के अवसर पर उपस्थित होते थे। इनमें राजा, सेनानी, पुरोहित, युवराज, ग्रामणी, सूत, पालागल, भागदुध आदि प्रमुख है।
- उत्तर वैदिक काल के दौरान स्त्रियों की दशा में गिरावट आई थी। अब उनका सभा और समितियों में प्रवेश वर्जित कर दिया गया था। अथर्ववेद में पुत्री के जन्म को अनिष्ट माना गया है। हालाँकि इस दौर में मैत्रेयी, गार्गी, जाबाल जैसी विदुषी कन्याओं का उल्लेख मिलता है।
- इस दौरान वर्ण व्यवस्था अधिक कठोर होने लगी थी तथा वर्ण व्यवस्था को कर्म के स्थान पर जन्म आधारित बना दिया गया था। इसके परिणाम स्वरूप समाज में शोषण की प्रवृत्ति अधिक बढ़ गई थी।
- उत्तर वैदिक आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन के स्थान पर कृषि हो गया था और अब वे स्थाई जीवन जीने लगे थे। इस दौरान गेहूं और धान मुख्य फसल थी। यजुर्वेद में चावल को ब्रीहि कहा गया है, जबकि अथर्ववेद में पहली बार नहरों और गन्ने का उल्लेख मिलता है।
- उत्तर वैदिक काल में तांबे के स्थान पर लोहे का प्रयोग व्यापक रूप से होने लगा था। उत्तर वैदिक कालीन ग्रंथों में लोहे को श्याम आयस् कहा गया है।
- भारत में लोहे का सर्वप्रथम प्रमाण 1000 ईसा पूर्व में उत्तर प्रदेश के अतरंजीखेड़ा से प्राप्त होता है।
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