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मृदा अपरदन (Soil Erosion in Hindi)

By BYJU'S Exam Prep

Updated on: September 13th, 2023

मृदा अपरदन (Soil Erosion) वस्तुतः मिट्टी की सबसे ऊपरी परत का क्षय होना है। सबसे ऊपरी परत का क्षय होने का अर्थ है-समस्त व्यावहारिक प्रक्रियाओं हेतु मिट्टी का बेकार हो जाना। मृदा अपरदन मिट्टी की ऊपरी परत का अनाच्छादन है। जो कि मिट्टी के क्षरण का एक रूप है। यह प्राकृतिक प्रक्रिया है, जो कि क्षय कारकों पानी, बर्फ, हवा, पौधों और जानवरों की गतिशील गतिविधि के कारण होती है। मृदा अपरदन प्रमुख रूप से जल व वायु द्वारा होता है। यदि जल व वायु का वेग तीव्र होगा तो अपरदन की प्रक्रिया भी तीव्र होती है।

इस लेख में हम आपको मृदा अपरदन (Soil Erosion) के बारे में सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध करा रहे हैं। उम्मीदवार नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करके मृदा अपरदन (Soil Erosion) से सम्बंधित सम्पूर्ण जानकारी का पीडीएफ़ हिंदी में डाउनलोड कर सकते हैं।

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मृदा अपरदन (Soil Erosion) : परिभाषा एवं प्रकार

मृदा अपरदन (Erosion) एक  प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसमें चट्टानों का विखंडन और परिणामस्वरूप निकले ढीले पदार्थों का जल, पवन, इत्यादि प्रक्रमों द्वारा स्थानांतरण होता है। अपरदन के प्रक्रमों में वायु, जल तथा हिमनद और सागरीय लहरें प्रमुख हैं।

1. सामान्य अथवा भूगर्भिक अपरदन: यह क्रमिक व दीर्घ प्रक्रिया है, इसमें जहां एक तरफ मृदा की ऊपरी परत अथवा आवरण का ह्रास होता है वहीं नवीन मृदा का भी निर्माण होता है। यह बिना किसी हानि के होने वाली प्राकृतिक प्रक्रिया है।

2. धारा तट अपरदन: धाराएं एवं नदियां एक किनारे को काटकर तथा दूसरे किनारे पर गाद भार को निक्षेपित करके अपने प्रवाह मार्ग बदलतीं रहतीं हैं। तीव्र बाढ़ के दौरान क्षति और तीव्र हो जाती है। बिहार में कोसी नदी पिछले सौ वर्षों में अपने प्रवाहमार्ग को 100 किमी. पश्चिम की ओर ले जा चुकी है।

3. तीव्र अपरदन: इसमें मृदा का अपरदन निर्माण की तुलना में अत्यंत तीव्र गति से होता है। मरुस्थलीय अथवा अर्द्ध-मरुस्थलीय भागों में जहां उच्च वेग की हवाएं चलती हैं तथा उन क्षेत्रों में जहां तीव्र वर्षा होती है वहां इस प्रकार से मृदा का अपरदन होता है।

4. अवनालिका अपरदन: जैसे-जैसे प्रवाहित सतही जल की मात्रा बढ़ती जाती है, ढालों पर उसका वेग भी बढ़ता जाता है, जिसके परिणामस्वरूप क्षुद्र धाराएं चौड़ीं होकर अवनालिकाओं में बदल जाती है। आगे जाकर अवनालिकाएं विस्तृत खड्डों में परिवर्तित हो जाती हैं, जो 50 से 100 फीट तक गहरे होते हैं। भारत के एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में खड्ड फैले हुए हैं।

5. सर्पण अपरदन: भूस्खलन से सर्पण अपरदन का जन्म होता है। मिट्टी के विशाल पिंड तथा यातायात व संचार में बाधाएं पैदा होती हैं। सर्पण अपरदन के प्रभाव स्थानीय होते हैं।

6. आस्फाल अपरदन: इस प्रकार का अपरदन वर्षा बूंदों के अनावृत मृदा पर प्रहार करने के परिणामस्वरूप होता है। इस प्रक्रिया में मिट्टी उखड़कर कीचड़ के रूप में बहने लगती है।

7. परत अपरदन: जब किसी सतही क्षेत्र से एक मोटी मृदा परत एकरूप ढंग से हट जाती है, तब उसे परत अपरदन कहा जाता है। आस्फाल अपरदन के परिणामस्वरूप होने वाला मृदा का संचलन परत अपरदन का प्राथमिक कारक होता है।

8. क्षुद्र धारा अपरदन: जब मृदा भार से लदा हुआ प्रवाहित जल ढालों के साथ-साथ बहता है, तो वह उंगलीकार तंत्रों का निर्माण कर देता है। धारा अपरदन को परत अपरदन एवं अवनालिका अपरदन का मध्यवर्ती चरण माना जाता है।

9. समुद्र तटीय अपरदन: इस प्रकार का अपरदन शक्तिशाली तरंगों की तीव्र क्रिया का परिणाम होता है।

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मृदा अपरदन (Soil Erosion) : कारक

मृदा अपरदन की दर को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं :

  1. जलवायु: अतिगहन एवं दीर्घकालिक वर्षा मृदा के भारी अपरदन का कारण बनता है। खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार, वर्षा की मात्रा, सघनता, उर्जा एवं वितरण तथा तापमान में परिवर्तन इत्यादि महत्वपूर्ण निर्धारक कारक हैं। वर्षा की गतिक ऊर्जा मृदा की प्रकृति के साथ गहरा संबंध रखती है। तापमान मृदा अपरदन की दर एवं प्रकृति को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। मृदा की बदलती हुई शुष्क एवं नम स्थितियों का परिणाम मृदा के पतले आवरण के निर्जलीकरण और जलीकरण के रूप में सामने आता है। इससे मृदा कणों का विस्तार होता है और मृदा में दरारें पड़ जाती हैं।
  2. भू-स्थलाकृतिक कारक: इनमें सापेक्षिक उच्चावच, प्रवणता, ढाल इत्यादि पहलू शामिल हैं। सतही जल का प्रवाह वेग तथा गतिक ऊर्जा गहन प्रवणता में बदल जाती है। अधिक लम्बाई वाले ढालों पर कम लम्बाई वाले ढालों की तुलना में मृदा अपरदन अधिक व्यापक होता है। भूमि की स्थलाकृति यह निर्धारित करती है कि किस सतह पर अपवाह प्रवाहित होगा, जो बदले में अपवाह की अपरिपक्वता को निर्धारित करता है। लम्बी, कम ढाल वाली ढलानों (विशेष रूप से पर्याप्त वनस्पति कवर के बिना) छोटी, कम खड़ी ढलानों की तुलना में भारी बारिश के दौरान कटाव की बहुत अधिक दर के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं। स्टेटर इलाके भी mudslides, भूस्खलन, और गुरुत्वाकर्षण कटाव प्रक्रियाओं के अन्य रूपों के लिए व्यापक होता हैं।
  3. प्राकृतिक वनस्पति : यह एक प्रभावी नियंत्रक कारक है, क्योंकि
  • वनस्पति वर्षा को अवरोधित करके भूपर्पटी को वर्षा बूंदों के प्रत्यक्ष प्रभाव से बचाती है।
  • वर्षा जल के प्रवाह को नियंत्रित करके वनस्पति उसे भू-सतह के भीतर रिसने का अवसर देती है।
  • पौधों की जड़ों मृदा कणों के पृथक्करण एवं परिवहन की दर को घटाती हैं।
  • जड़ों के प्रभाव के फलस्वरूप कणिकायन, मृदा क्षमता एवं छिद्रता में बढ़ोतरी होती है।
  • मृदा वनस्पति के कारण उच्च एवं निम्न तापमान के घातक प्रभावों से बची रहती है, जिससे उसमें दरारें विकसित नहीं होतीं।
  • वनस्पति पवन गति को धीमा करके मृदा अपरदन में कमी लाती है।
  1. मृदा प्रकृति: मृदा की अपरदनशीलता का सम्बंध इसके भौतिक व रासायनिक गुणों, जैसे-कणों का आकार, वितरण, ह्यूमस अंश, संरचना, पारगम्यता, जड़ अंश, क्षमता इत्यादि से होता है। फसल एवं भूमि प्रबंधन भी मृदा अपरदन को प्रभावित करता है। एफएओ के अनुसार मृदा कणों की अनासक्ति, परिवाहंता तथा अणु आकर्षण और मृदा की आर्द्रता धारण क्षमता व गहराई मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कारक हैं।
  2. विकास: मानव भूमि विकास, कृषि और शहरी विकास सहित रूपों में, क्षरण और तलछट परिवहन में एक महत्वपूर्ण कारक माना जाता है। ताइवान में, द्वीप के उत्तरी, मध्य और दक्षिणी क्षेत्रों में तलछट भार में वृद्धि 20 वीं शताब्दी में प्रत्येक क्षेत्र के लिए विकास की समयरेखा के साथ देखी जा सकती है।
  3. वायु वेग: मजबूत एवं तेज हवाओं में अपरदन की व्यापक क्षमता होती है। इस प्रकार वायु वेग का अपरदन की तीव्रता के साथ प्रत्यक्ष आनुपतिक संबंध है।

मृदा अपरदन (Soil Erosion) : कारण

  1. वनों की कटाई: वनों की कटाई की वजह से मिट्टी की सतह से खनिज और मिट्टी की परतों को हटाकर, मिट्टी को एक साथ बांधने वाले वानस्पतिक आवरण को हटाने और लॉगिंग उपकरण से भारी मिट्टी संघनन के कारण खनिज कटाव के कारण कटाव की दर बढ़ जाती है। एक बार जब पेड़ों को आग या लॉगिंग द्वारा हटा दिया जाता है, तो घुसपैठ की दर उच्च हो जाती है और जंगल के फर्श के निचले स्तर तक क्षरण होता है। वनस्पति आवरण के लोप ने पश्चिमी घाट, उत्तर प्रदेश तथा हिमाचल प्रदेश में विस्तृत अपरदन को जन्म दिया है।
  2. कृषि पद्धतियां: नीलगिरी क्षेत्र में आलू एवं अदरक की फसलों को बिना अपरदन-विरोधी उपाय (ढालों पर सोपानों का निर्माण आदि) किये उगाया जाता है। ढालों पर स्थित वनों को भी पौध फसलें उगाने के क्रम में साफ किया जा चुका है। इस प्रकार की त्रुटिपूर्ण कृषि पद्धतियों के कारण मृदा अपरदन में तेजी आती है। इन क्षेत्रों में भूस्खलन एक सामान्य लक्षण बन जाता है।
  3. झूम कृषि: झूम कृषि एक पारिस्थितिक रूप से विनाशकारी तथा अनार्थिक कृषि पद्धति है। झूम कृषि की उत्तर-पूर्व के पहाड़ी क्षेत्रों छोटानागपुर, ओडीशा, मध्य प्रदेश तथा आंध्र प्रदेश में विशेषतः जनजातियों द्वारा प्रयुक्त किया जाता है। झूम या स्थानांतरण कृषि के कारण उत्तर-पूर्वी पहाड़ी भागों का बहुत बड़ा क्षेत्र मृदा अपरदन का शिकार हो चुका है।
  4. रेल मार्ग एवं सड़कों का निर्माण : रेल पटरियों एवं सड़कों को इस प्रकार बिछाया जाना चाहिए कि वे आस-पास की भूमि से ऊंचे स्तर पर रहें, किन्तु कभी-कभी रेल पटरियां एवं सड़कें प्राकृतिक अपवाह तंत्रों के मार्ग में बाधा बन जाते हैं। इससे एक ओर जलाक्रांति तथा दूसरी ओर जल न्यूनता की समस्या पैदा होती है। ये सभी कारक एक या अधिक तरीकों से मृदा अपरदन में अपना योगदान देते हैं
  5. उचित भू-पृष्ठीय अपवाह का अभाव: उचित अपवाह के अभाव में निचले क्षेत्रों में जलाक्रांति हो जाती है, जो शीर्ष मृदा संस्तर को ढीला करके उसे अपरदन का शिकार बना देती है।
  6. दावानल: कभी-कभी जंगल में प्राकृतिक कारणों से आग लग जाती है, किंतु मानव द्वारा लगायी गयी आग अपेक्षाकृत अधिक विनाशकारी होती है। इसके परिणामस्वरूप वनावरण सदैव के लिए लुप्त हो जाता है तथा मिट्टी अपरदन की समस्या से ग्रस्त हो जाती है।

मृदा अपरदन (Soil Erosion) : दुष्परिणाम

यदि समय रहते मृदा अपरदन की दर को नियंत्रित नहीं किया गया तो इसके निम्न भयावह दुष्परिणाम देखने को मिल सकते हैं:

  • आकस्मिक बाढ़ों का प्रकोप।
  • नदियों के मार्ग में बालू एकत्रित होने से जलधारा का परिवर्तन तथा उससे अनेक प्रकार की हानियां।
  • कृषि योग्य उर्वर भूमि का नष्ट होना।
  • आवरण अपरदन के कारण भूमि की उर्वर ऊपरी परत का नष्ट होना।
  • भौम जल स्तर गिरने से पेय तथा सिंचाई के लिए जल में कमी होना।
  • शुष्क मरुभूमि का विस्तार होने से स्थानीय जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव एवं परोक्ष रूप से कृषि पर दुष्प्रभाव।
  • वनस्पति आवरण नष्ट होने से इमारती व जलाऊ लकड़ी की समस्या तथा वन्य जीवन पर दुष्प्रभाव।
  • भूस्खलन से सड़कों का विनाश।

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