प्रगतिवाद की अवधारणा
- प्रगति का अर्थ है-'आगे बढ़ना' या 'उन्नति प्रगतिवाद उन विचारधाराओं एवं आन्दोलनों के सन्दर्भ में प्रयुक्त किया जाता है, जो आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों में परिवर्तन या सुधार के पक्षधर है। प्रगतिवाद का सम्बन्ध मार्क्सवादी आंदोलन से है।
- इस आन्दोलन का प्रवर्तन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पाश्चात्य देशों में हुआ। 1935 ई. में पेरिस में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई, जिसने साहित्य के माध्यम से समाजवादी विचारों के प्रचार को साहित्यकार: का लक्ष्य घोषित किया।
- इसकी एक शाखा भारतवर्ष में स्थापित हुई 1996 ई. में लखनऊ में 'भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षता मुंशी प्रेमचन्द ने की। मुंशी प्रेमचन्द ने भाषण में घोषित किया कि “साहित्य केवल मनोरंजन को वस्तु नहीं है, उसका लक्ष्य समाज का हित होना चाहिए।" द्वितीय अधिवेशन (1938) की अध्यक्षता डॉ. रवीन्द्रनाथ टैगोर ने की।
- वस्तुतः मुंशी प्रेमचन्द व टैगोर दोनों ने ही प्रगतिशील की एक व्यापक एवं उदास रूप में ही ग्रहण किया, जबकि परिवर्तित साहित्यकारों ने इसे मार्क्सवाद को संकीर्ण सीमाओं में अवरुद्ध करके इसे प्रगतिशीलता से प्रगतिवाद का रूप दे दिया। प्रगतिशीलता जहाँ किसी वाद विशेष की सूचक नहीं है।
- कोई भी विचार जो समाज की प्रगति में सहायक होता है, प्रगतिशील कहा जा सकता है, जबकि प्रगतिवाद का अर्थ विशुद्ध मार्क्सवादी विचारों से लिया जाता है। इसलिए प्रगतिवाद की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि "राजनीति के क्षेत्र में जो मार्क्सवाद है, वहीं साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद है।"
- प्रगतिवाद का प्रारम्भ 1936 ई. में हुआ। 1936 से 1943 ई. के बीच के काल की कविता “प्रगतिवादी” कविता है। साम्यवादी (मार्क्सवादी) विचारधारा से प्रभावित कवि प्रगतिवादी कवि कहलाए।
- कुछ प्रमुख प्रगतिवादी कवि निम्नलिखित है— रामेश्वर करुण, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, शिवमंगल सिंह 'सुमन', डॉ. रांगेय राघव, त्रिलोचन शास्त्री, मन्नूलाल शर्मा, डॉ. महेन्द्र भटनागर, सुदर्शन चक्र। प्रगतिवाद के अन्य कवियों में मलखान सिंह, चन्द्रदेव शर्मा, गणपति चन्द्र भण्डारी, विजय चन्द्र मेघराज, मान सिंह, मनुज देपावत, हरिनारायण विद्रोही आदि।
प्रगतिवाद की प्रवृत्तियाँ :
- शोषण का विरोध
- समतामूलक समाज का निर्माण
- शोषित वर्ग की दयनीय स्थिति का वर्णन
- नारी विषयक दृष्टिकोण
- यथार्थवादी दृष्टिकोण
- उपयोगितावाद
- प्रतीक योजना
प्रयोगवाद
- प्रगतिवाद व छायावाद के विरोध में प्रयोगवाद आया। छायावाद में कोरी भावुकता थी, जबकि प्रगतिवाद में शुष्क सामाजिकता। छायावादी कविता कोरी अनुभूति आधारित रही है, जबकि प्रगतिवादी कविता शुष्क अभिव्यक्ति पर इसके विपरीत प्रयोगवादी कविता अनुभूति और अभिव्यक्ति के सामंजस्य से तैयार होती है। यह जीए तथा भोगे व जाने गए सत्यों को उद्घाटित करती है।
- प्रयोगवाद का मूल आधार वैयक्तिकता हैं। प्रयोगवादी कविता में मध्यवर्गीय समाज का चित्रण प्रमुखता से किया गया।
- प्रयोगवाद उन कविताओं के लिए रूढ़ हो गया, जो कुछ 'नए बोधों', 'संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करने वाले 'शिल्पगत चमत्कारों को लेकर शुरू-शुरू में 'तारसप्तक' के माध्यम से सन् 1943 में प्रकाशन जगत में आई और जो प्रगतिशील कविताओं के साथ विकसित होती गई तथा जिनका पर्यवसान कविता में हो गया।
- प्रयोगवाद की शुरुआत 'तारसप्तक' के प्रकाशन से मानी गई। तारसप्तक का सम्पादन 'अज्ञेय' ने सन् 1943 ई. में किया। तारसप्तक में सात कवियों की रचनाएँ संकलित हैं, जिनके नाम हैं।
हीरानन्द सचिवदानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय', गजाननमाधव मुक्तिबोध', प्रभाकर माचवे, नामचन्द्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, गिरिजाकुमार 'माथुर', रामविलास शर्मा।
- प्रयोगवाद नाम सबसे पहले आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी द्वारा दिया गया, जो व्यंग्य स्वरूप दिया गया नाम था। इसका विरोध करते हुए तारसप्तक के संपादक अज्ञेय जी ने कहा कि हमारी कविताओं को यदि कोई नाम देना चाहे तो 'नई कविता' कह सकता है।
- उन्होंने कहा कि "हम वादी नहीं रहे, न ही हम अपने महान् पूर्ववर्तियों का अनुकरण करना चाहते और न ही यह चाहते हैं कि कोई हमारा अनुकरण करे। हमें लीक पर चलना पसन्द नहीं।" अज्ञेय जी को 'आँगन के पार द्वार द्वारा काव्य कृति के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तथा 'कितनी नावों में कितनी बार' के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। तारसप्तक के सातों रचनाकार किसी एक धारा के नहीं, बल्कि अलग-अलग स्थूलों से सम्बन्धित हैं। यह कविता वाद विरोधी है।
- तार सप्तक के चार प्रकाशन-
तारसप्तक (1943) के प्रमुख कवि
- नेमिचन्द्र जैन
- गजाननमाधव मुक्तिबोध'
- भारत भूषण अग्रवाल
- प्रभाकर माचवे
- गिरिजाकुमार माथुर
- रामविलास शर्मा
द्वितीय तारसप्तक (1951) के कवि
- भवानीप्रसाद मिश्र
- शकुंतला माथुर
- हरिनारायण व्यास
- शमशेर बहादुर
- नरेश मेहता
- रघुवीर सहाय
- शकुन्तला माथुर
- शमशेर बहादुर
- धर्मवीर भारती
तृतीय तारसप्तक (1959) के कवि
- प्रतापनारायण त्रिपाठी
- कुँवर नारायण
- केदारनाथ सिंह
- विजयदेव नारायण शाही
- मदन वात्स्यायन
- विजयदेव नारायण शाही
- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
चौथे तारसप्तक (1979) के कवि
- अवधेश कुमार
- स्वदेश भारती
- श्रीराम वर्मा
- राजकुमार कुम्भज
- नन्दकिशोर आचार्य
- सुमन राजे
- राजेन्द्र किशोर
नई कविता
- हिन्दी काव्य में प्रयोगवाद के बाद 'नई कविता' का जन्म हुआ, यह काल 1953 ई. के बाद का है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि प्रयोगवाद ही कालांतर में नई कविता के रूप में उभरकर सामने आया।
- गिरिजा कुमार माथुर छायावादोत्तर काव्य को नई कविता के अन्तर्गत मानते हैं, जबकि डॉ. रामविलास शर्मा और डॉ. नामवर सिंह नई कविता को प्रयोगवाद का ही छद्म रूप स्वीकार करते हैं। वहीं नरेश मेहता और श्रीकान्त वर्मा नई कविता को प्रयोगवाद से अलग मानते हैं।
- वास्तव में, प्रयोगवाद की कविता में अतिशय बौद्धिकता और प्रयोगशीलता थी। नई कविता को इस अतिरेक से बचाया गया और नवीन शिल्प को महत्त्व दिया गया। नई कविता जीवन हर पक्ष से जुड़ी हुई है।
- नई कविता में जीवन आस्था अनास्था, सुख-दुःख, कुण्ठा-पीड़ा, राग-विराग आदि संवेदनाएँ हैं। नई कविता में विषयों का समावेश विषय-वस्तु एवं शिल्प के स्तर पर किया गया है। इस कविता में भाषा की सहजता के साथ-साथ अस्तित्ववादी मान्यताएँ भी हैं।
नई कविता की प्रवृत्तियाँ :
- संत्रास, कुंठा, घुटन, दर्द जैसे भावों की अभिव्यक्ति
- लघु मानव की प्रतिष्ठा
- अस्तित्ववादी चिंतन
- विरोध के स्वर
- अकेलेपन और अजनबीपन की अभिव्यक्ति
- व्यंग्य की प्रवृत्ति
- अलंकार के प्रयोग में नवीनता
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हमें आशा है कि आप सभी UGC NET परीक्षा 2022 के लिए पेपर -2 हिंदी, आधुनिक काल (छायावादोत्तर युग) से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु समझ गए होंगे।
Thank you
Team BYJU'S Exam Prep.
Sahi Prep Hai To Life Set Hai!!
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