रीतिकालीन काव्य को मुख्य रूप से तीन वर्गों में विभाजित किया गया है, जिनका वर्णन निम्नलिखित हैं।
रीतिबद्ध काव्य
- रीतिकाल के प्रथम वर्ग के कवियों ने संस्कृत के आचार्यों की भाँति काव्यांग निरूपण से सम्बन्धित लक्षण ग्रन्थों की रचना करते हुए उसमें काव्यांगों के लक्षण और उदाहरण दिए, ये कवि रीतिबद्ध कवि कहलाए।
- इन रीतिबद्ध कवियों का प्रमुख उद्देश्य अपनी काव्य प्रतिभा का परिचय देना था। अतः वे लक्षणों के वर्णन पर उतना ध्यान नहीं देते थे, जितना उदाहरणों के वर्णन पर।
- रीतिबद्ध कवियों की इसी प्रवृत्ति के आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इनके द्वारा रचित रीति ग्रन्थों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं- "इन रीति ग्रन्थों के कर्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे। उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगों का शास्त्रीय पद्धति पर निरूपण करना।”
- वस्तुतः रीतिबद्ध कवियों द्वारा संस्कृत काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों को आधार बनाकर लिखे गए, काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में न तो मौलिकता ही थी और न ही इससे काव्यशास्त्र का कोई उल्लेखनीय विकास ही हुआ।
- चिन्तामणि (काव्य विवेक), मतिराम (ललित ललाम, अलंकार पंचाशिका), भूषण (शिवराज भूषण) देव (भाव विलास, काव्य रसायन), भिखारीदास (काव्य निर्णय),पद्माकर (जगद्विनोद) आदि प्रमुख रीतिबद्ध कवि हैं।
रीतिसिद्ध काव्य
- रीतिकाल के द्वितीय वर्ग के कवि रीतिबद्ध कवियों की भाँति संस्कृत के काव्यांगों अलंकार, रस, छन्द इत्यादि से भली-भाँति परिचित तो अवश्य थे, किन्तु उन्होंने लक्षण ग्रन्थों की रचना न करके उनके आधार पर स्वयं के काव्य ग्रन्थों की रचना की।
- इस वर्ग के कवि काव्यशास्त्र की इस 'रीति' में पारंगत अथवा सिद्ध थे, इसलिए इन्हें रीतिसिद्ध कवि कहा गया। बिहारी (सतसई) और सेनापति (कवित्त रत्नाकर) आदि इसके प्रमुख रीतिसिद्ध कवि हैं। सेनापति ने प्रकृति पर स्वतन्त्र रूप से रचना की है।
रीतिमुक्त काव्य
- रीतिकाल के तृतीय वर्ग के कवि रीतिमुक्त कहलाते हैं। इन कवियों ने लक्षण ग्रन्थों की रचना करने या काव्यांगों को आधार बनाकर काव्य-ग्रन्थ लिखने की परम्परा से मुक्त होकर हृदय की स्वतन्त्र वृत्तियों को काव्य में निबद्ध किया।
- रीतिकाव्य की चली आ रही परम्परा से मुक्त होने के कारण ही ये कवि रीतिमुक्त कहलाते हैं। घनानन्द (वियोग बेलि, सुजान हित), बोधा (विरहवारीश, इश्कनामा), आलम (आलमकेलि), ठाकुर (ठाकुर ठसक) आदि इसके प्रमुख रीतिमुक्त काव्य कवि हैं।
रीतिकवियों का आचार्यत्व
- रीतिकाल में आचार्य कर्म का बहुत निर्वाह हुआ। रीति कवियों ने लक्षण ग्रन्थ लिखकर काव्यांगों का निरूपण किया। निःसन्देह राज्याश्रय पारम्परिक प्रतियोगिता की भावना और ऐहिक ऐश्वर्य हेतु आश्रयदाता की प्रशंसा करने की प्रवृत्ति ही इस प्रबलता का मूल कारण था, इसलिए कवियों ने लक्षण ग्रन्थ तथा लक्ष्य ग्रन्थ दोनों ही प्रकार के ग्रन्थ लिखकर इस कर्तव्य का निर्वाह किया।
- रीतिकालीन कवि अथवा ग्रन्थकार दरबारी आवश्यकताओं के अनुरूप ही कवि कर्म से जुड़े हुए थे। इन्हें आचार्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इन्होंने किसी मौलिक सिद्धान्त की विवेचना नहीं की और न ही किसी सिद्धान्त का खण्डन-मण्डन किया, जबकि आचार्य का अर्थ होता है- उद्भावना अथवा विवेचन करने वाला।
- रीतिकालीन आश्रयदाताओं का उद्देश्य मनोविनोद का था न कि काव्यशास्त्र के विकास का। ये कविता को काव्यशास्त्रीय ढंग से मात्र सुनना और उससे मनोरंजन प्राप्त करना चाहते थे। यही कारण है कि रीतिकालीन रचनाकारों ने अपने मुक्तकों के सहारे इनकी कामोत्तेजना को और उद्दीप्त किया तथा धन अर्जित किया।
- संस्कृत के उत्तरकालीन ग्रन्थों में आचार्यों की तीन श्रेणियां निर्धारित की गई हैं, जिनका वर्णन निम्नलिखित है:
1. उद्भावक आचार्य 2. व्याख्याता आचार्य 3. कवि शिक्षक आचार्य
१. उद्भावक आचार्य के अन्तर्गत पुनः उन विद्वानों को रखा गया, जिन्होंने किसी सिद्धान्त की उद्भावना की अथवा विवेचना की; जैसे-आचार्य वामन, आचार्य अभिनव गुप्त आदि ।
२. व्याख्याता आचार्य नवीन सिद्धान्तों का अनुसन्धान न करने वाले थे, बल्कि पूर्व निर्धारित सिद्धान्तों का खण्डन-मण्डन अथवा उसकी विशद् व्याख्या के उद्देश्य से संचालित थे; जैसे- आचार्य मम्मट, पण्डित विश्वनाथ और पण्डित जगन्नाथ।
३. कवि, शिक्षक, आचार्य न तो सिद्धान्त के उद्भाव व विवेचना से सम्बन्धित थे और न ही उसके विकास से, बल्कि सिद्धान्तों को जनसामान्य अथवा नए आचार्यों के लिए सहज व साध्य बनाने के लिए प्रस्तुत थे। इन आचार्यों में जयदेव, अप्पय दीक्षित तथा भानुदास मिश्र का प्रमुख स्थान रहा है। रीतिकालीन काव्य में प्रकृति पर स्वतन्त्र रूप से रचना करने वाले कवि सेनापति प्रशंसनीय हैं।
- रीति ग्रन्थकारों को उपरोक्त आचार्यों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता। इन्होंने सरस उदाहरण एवं व्याख्या के द्वारा काव्यांगों को सहज आस्वादन के योग्य बनाने का कार्य किया, इसलिए यदि इन्हें किसी नाम से सम्बोधित करने की बात की जाए तो कवि, शिक्षक, आचार्य कहा जा सकता है।
- हालाँकि डॉ. बच्चन सिंह ने इन्हें आचार्यत्व और कवित्व दोनों ही श्रेणियों में उत्कृष्ट नहीं माना है। इन्होंने कहा कि आचार्यत्व के मोह ने इन निसर्ग सिक कवियों की कविताओं के पाँव में लौह श्रृंखला का कार्य किया।
- दूसरी ओर डॉ. नगेन्द्र इनके सरस उदाहरण और कविता रचना को ही आचार्यत्व को प्रभावी करने वाले कारणों के रूप में देखते हैं। आचार्य शुक्ल भी इन्हें आचार्य नहीं मानते, परन्तु इनकी कविता की भाव-प्रवणता और सहजता को उत्कृष्ट मानते हैं।
- आचार्य द्विवेदी ने भी इन रचनाकारों के वर्ग को निर्धारित करते हुए इन्हें उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य की सामग्री से ही प्रेरित माना है। यह उचित है कि रीति रचनाकार/ग्रन्थकार मौलिक उभासक नहीं थे, परन्तु इनके आचार्यत्व को कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।
हमें आशा है कि आप सभी UGC NET परीक्षा 2022 के लिए पेपर -2 हिंदी, रीतिकाल (रीतिकाल की काव्य धाराएं) से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु समझ गए होंगे।
Thank you
Team BYJU'S Exam Prep.
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