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यूपी टीजीटी हिंदी 2024 मिनी मॉक - 16

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Question 1

निर्देश: पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित में सबसे उचित विकल्प को चुनिए ।
मेवाड़-केसरी देख रहा,
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़-दौड़ करता था रण,
वह मान-रक्त का प्यासा था।
चढ़कर चेतक पर घूम-घूम,
करता सेना रखवाली था ।
ले महामृत्यु को साथ-साथ
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट-काट
करता था सफल जवानी को।
“रण” शब्द का पर्यायवाची शब्द है -

Question 2

निर्देश: पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित में सबसे उचित विकल्प को चुनिए ।
मेवाड़-केसरी देख रहा,
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़-दौड़ करता था रण,
वह मान-रक्त का प्यासा था।
चढ़कर चेतक पर घूम-घूम,
करता सेना रखवाली था ।
ले महामृत्यु को साथ-साथ
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट-काट
करता था सफल जवानी को।
मेवाड़ केसरी किस चीज का प्यासा था –

Question 3

निर्देश: पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित में सबसे उचित विकल्प को चुनिए ।
मेवाड़-केसरी देख रहा,
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़-दौड़ करता था रण,
वह मान-रक्त का प्यासा था।
चढ़कर चेतक पर घूम-घूम,
करता सेना रखवाली था ।
ले महामृत्यु को साथ-साथ
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट-काट
करता था सफल जवानी को।
चेतक कौन था?

Question 4

निर्देश: पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित में सबसे उचित विकल्प को चुनिए ।
मेवाड़-केसरी देख रहा,
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़-दौड़ करता था रण,
वह मान-रक्त का प्यासा था।
चढ़कर चेतक पर घूम-घूम,
करता सेना रखवाली था ।
ले महामृत्यु को साथ-साथ
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट-काट
करता था सफल जवानी को।
मान का विलोम शब्द है

Question 5

निर्देश: पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित में सबसे उचित विकल्प को चुनिए ।
मेवाड़-केसरी देख रहा,
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़-दौड़ करता था रण,
वह मान-रक्त का प्यासा था।
चढ़कर चेतक पर घूम-घूम,
करता सेना रखवाली था ।
ले महामृत्यु को साथ-साथ
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट-काट
करता था सफल जवानी को।
शत्रु का सिर काट काट कर कौन प्रसन्न हो रहा था?

Question 6

निर्देश: निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर इस पर आधारित प्रश्नों के उचित उत्तर दीजिए।

मनुष्य को जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है। इन संघर्षों में उसे समाज का अपेक्षित सहयोग भी मिलता है, किंतु यह सहयोग यदि अधिक मिलने लगे तो वह दूसरों पर निर्भर रहने का आदी हो जाता है। दूसरों पर उसकी निर्भरता उसकी परतंत्रता का भी कारण बन जाती है। दूसरे पर निर्भर रहकर व्यक्ति अपने जीवन के सुखों का वास्तविक उपभोग नहीं कर सकता, क्योंकि वह प्रायः हर कार्य अथवा वस्तु के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, इसलिए कहा गया है कि "पराधीन सपनेहूं सुख नाही" वास्तव में, स्वाबलंबन या आत्मनिर्भरता ही मनुष्य को स्वाधीन बनने की प्रेरणा देती है। स्वाबलंबन की स्थिति में व्यक्ति अपनी इच्छाओं को अपनी सुविधानुसार पूरा कर पाता है। उसे इससे लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती।

मनुष्य स्वभावतः सुख की चाह तो रखता है, लेकिन इसके लिए वह परिश्रम करने से यथासंभव बचने की कोशिश करता है। इसी कारण वह अपने कार्य एवं वस्तुओं के लिए दूसरों पर निर्भर होने लगता है। स्वाबलंबन केवल व्यक्ति के जीवन के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है। यदि मनुष्य प्रकृति पर ही निर्भर रहता है तो उसने जीवन के हर क्षेत्र में जो प्रगति हासिल किए हुए हैं उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाता। स्वाबलंबन ने ही मनुष्य को पशुओं से अलग किया है। हालांकि पशु स्वाभाविक रूप से अधिक स्वाबलंबी होते हैं फिर तू स्वावलंबी बनने की चाह मनुष्य में अधिक होती है। वह अपने जीवन में सुख की प्राप्ति के लिए हर प्रकार के साधन जुटाना चाहता है। इसके लिए उसे स्वयं परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ती है स्वावलंबी बनने की उसकी यही चाह उसकी प्रगति में सहायक बनती है।

दूसरे पर निर्भरता, हमें दूसरों का अनुकरण करने को बाध्य करते हैं। दूसरे पर निर्भर रहते हुए हमें उसकी मर्जी के अनुरूप जीने को बाध्य होना पड़ता है। इस कारण हमारी स्वभाविक सृजनशीलता एवं सोच की शक्ति नष्ट हो जाती है। हमारा आत्मविश्वास खत्म हो जाता है हमें लगने लगता है कि हम स्वयं कुछ नहीं कर सकते। ऐसी भावना के कारण हमारी उन्नति बाधित होती है।स्वयं परिश्रम से अर्जित की हुई संपत्ति के भोग का आनंद ही अलग होता है। दूसरों की कृपा पर जीने वाला व्यक्ति इस आनंद से सदा वंचित रहता है।

निम्न में से कौन सा कथन सही नहीं है?

Question 7

निर्देश: निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर इस पर आधारित प्रश्नों के उचित उत्तर दीजिए।

मनुष्य को जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है। इन संघर्षों में उसे समाज का अपेक्षित सहयोग भी मिलता है, किंतु यह सहयोग यदि अधिक मिलने लगे तो वह दूसरों पर निर्भर रहने का आदी हो जाता है। दूसरों पर उसकी निर्भरता उसकी परतंत्रता का भी कारण बन जाती है। दूसरे पर निर्भर रहकर व्यक्ति अपने जीवन के सुखों का वास्तविक उपभोग नहीं कर सकता, क्योंकि वह प्रायः हर कार्य अथवा वस्तु के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, इसलिए कहा गया है कि "पराधीन सपनेहूं सुख नाही" वास्तव में, स्वाबलंबन या आत्मनिर्भरता ही मनुष्य को स्वाधीन बनने की प्रेरणा देती है। स्वाबलंबन की स्थिति में व्यक्ति अपनी इच्छाओं को अपनी सुविधानुसार पूरा कर पाता है। उसे इससे लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती।

मनुष्य स्वभावतः सुख की चाह तो रखता है, लेकिन इसके लिए वह परिश्रम करने से यथासंभव बचने की कोशिश करता है। इसी कारण वह अपने कार्य एवं वस्तुओं के लिए दूसरों पर निर्भर होने लगता है। स्वाबलंबन केवल व्यक्ति के जीवन के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है। यदि मनुष्य प्रकृति पर ही निर्भर रहता है तो उसने जीवन के हर क्षेत्र में जो प्रगति हासिल किए हुए हैं उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाता। स्वाबलंबन ने ही मनुष्य को पशुओं से अलग किया है। हालांकि पशु स्वाभाविक रूप से अधिक स्वाबलंबी होते हैं फिर तू स्वावलंबी बनने की चाह मनुष्य में अधिक होती है। वह अपने जीवन में सुख की प्राप्ति के लिए हर प्रकार के साधन जुटाना चाहता है। इसके लिए उसे स्वयं परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ती है स्वावलंबी बनने की उसकी यही चाह उसकी प्रगति में सहायक बनती है।

दूसरे पर निर्भरता, हमें दूसरों का अनुकरण करने को बाध्य करते हैं। दूसरे पर निर्भर रहते हुए हमें उसकी मर्जी के अनुरूप जीने को बाध्य होना पड़ता है। इस कारण हमारी स्वभाविक सृजनशीलता एवं सोच की शक्ति नष्ट हो जाती है। हमारा आत्मविश्वास खत्म हो जाता है हमें लगने लगता है कि हम स्वयं कुछ नहीं कर सकते। ऐसी भावना के कारण हमारी उन्नति बाधित होती है।स्वयं परिश्रम से अर्जित की हुई संपत्ति के भोग का आनंद ही अलग होता है। दूसरों की कृपा पर जीने वाला व्यक्ति इस आनंद से सदा वंचित रहता है।

सफलता की राह आसान हो जाती है

Question 8

निर्देश: निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर इस पर आधारित प्रश्नों के उचित उत्तर दीजिए।

मनुष्य को जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है। इन संघर्षों में उसे समाज का अपेक्षित सहयोग भी मिलता है, किंतु यह सहयोग यदि अधिक मिलने लगे तो वह दूसरों पर निर्भर रहने का आदी हो जाता है। दूसरों पर उसकी निर्भरता उसकी परतंत्रता का भी कारण बन जाती है। दूसरे पर निर्भर रहकर व्यक्ति अपने जीवन के सुखों का वास्तविक उपभोग नहीं कर सकता, क्योंकि वह प्रायः हर कार्य अथवा वस्तु के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, इसलिए कहा गया है कि "पराधीन सपनेहूं सुख नाही" वास्तव में, स्वाबलंबन या आत्मनिर्भरता ही मनुष्य को स्वाधीन बनने की प्रेरणा देती है। स्वाबलंबन की स्थिति में व्यक्ति अपनी इच्छाओं को अपनी सुविधानुसार पूरा कर पाता है। उसे इससे लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती।

मनुष्य स्वभावतः सुख की चाह तो रखता है, लेकिन इसके लिए वह परिश्रम करने से यथासंभव बचने की कोशिश करता है। इसी कारण वह अपने कार्य एवं वस्तुओं के लिए दूसरों पर निर्भर होने लगता है। स्वाबलंबन केवल व्यक्ति के जीवन के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है। यदि मनुष्य प्रकृति पर ही निर्भर रहता है तो उसने जीवन के हर क्षेत्र में जो प्रगति हासिल किए हुए हैं उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाता। स्वाबलंबन ने ही मनुष्य को पशुओं से अलग किया है। हालांकि पशु स्वाभाविक रूप से अधिक स्वाबलंबी होते हैं फिर तू स्वावलंबी बनने की चाह मनुष्य में अधिक होती है। वह अपने जीवन में सुख की प्राप्ति के लिए हर प्रकार के साधन जुटाना चाहता है। इसके लिए उसे स्वयं परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ती है स्वावलंबी बनने की उसकी यही चाह उसकी प्रगति में सहायक बनती है।

दूसरे पर निर्भरता, हमें दूसरों का अनुकरण करने को बाध्य करते हैं। दूसरे पर निर्भर रहते हुए हमें उसकी मर्जी के अनुरूप जीने को बाध्य होना पड़ता है। इस कारण हमारी स्वभाविक सृजनशीलता एवं सोच की शक्ति नष्ट हो जाती है। हमारा आत्मविश्वास खत्म हो जाता है हमें लगने लगता है कि हम स्वयं कुछ नहीं कर सकते। ऐसी भावना के कारण हमारी उन्नति बाधित होती है।स्वयं परिश्रम से अर्जित की हुई संपत्ति के भोग का आनंद ही अलग होता है। दूसरों की कृपा पर जीने वाला व्यक्ति इस आनंद से सदा वंचित रहता है।

स्वावलंबी व्यक्ति अपनी इच्छाओं को किस प्रकार पूरा करता है?

Question 9

निर्देश: निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर इस पर आधारित प्रश्नों के उचित उत्तर दीजिए।

मनुष्य को जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है। इन संघर्षों में उसे समाज का अपेक्षित सहयोग भी मिलता है, किंतु यह सहयोग यदि अधिक मिलने लगे तो वह दूसरों पर निर्भर रहने का आदी हो जाता है। दूसरों पर उसकी निर्भरता उसकी परतंत्रता का भी कारण बन जाती है। दूसरे पर निर्भर रहकर व्यक्ति अपने जीवन के सुखों का वास्तविक उपभोग नहीं कर सकता, क्योंकि वह प्रायः हर कार्य अथवा वस्तु के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, इसलिए कहा गया है कि "पराधीन सपनेहूं सुख नाही" वास्तव में, स्वाबलंबन या आत्मनिर्भरता ही मनुष्य को स्वाधीन बनने की प्रेरणा देती है। स्वाबलंबन की स्थिति में व्यक्ति अपनी इच्छाओं को अपनी सुविधानुसार पूरा कर पाता है। उसे इससे लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती।

मनुष्य स्वभावतः सुख की चाह तो रखता है, लेकिन इसके लिए वह परिश्रम करने से यथासंभव बचने की कोशिश करता है। इसी कारण वह अपने कार्य एवं वस्तुओं के लिए दूसरों पर निर्भर होने लगता है। स्वाबलंबन केवल व्यक्ति के जीवन के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है। यदि मनुष्य प्रकृति पर ही निर्भर रहता है तो उसने जीवन के हर क्षेत्र में जो प्रगति हासिल किए हुए हैं उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाता। स्वाबलंबन ने ही मनुष्य को पशुओं से अलग किया है। हालांकि पशु स्वाभाविक रूप से अधिक स्वाबलंबी होते हैं फिर तू स्वावलंबी बनने की चाह मनुष्य में अधिक होती है। वह अपने जीवन में सुख की प्राप्ति के लिए हर प्रकार के साधन जुटाना चाहता है। इसके लिए उसे स्वयं परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ती है स्वावलंबी बनने की उसकी यही चाह उसकी प्रगति में सहायक बनती है।

दूसरे पर निर्भरता, हमें दूसरों का अनुकरण करने को बाध्य करते हैं। दूसरे पर निर्भर रहते हुए हमें उसकी मर्जी के अनुरूप जीने को बाध्य होना पड़ता है। इस कारण हमारी स्वभाविक सृजनशीलता एवं सोच की शक्ति नष्ट हो जाती है। हमारा आत्मविश्वास खत्म हो जाता है हमें लगने लगता है कि हम स्वयं कुछ नहीं कर सकते। ऐसी भावना के कारण हमारी उन्नति बाधित होती है।स्वयं परिश्रम से अर्जित की हुई संपत्ति के भोग का आनंद ही अलग होता है। दूसरों की कृपा पर जीने वाला व्यक्ति इस आनंद से सदा वंचित रहता है।

स्वावलंबी व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा का पात्र इसलिए होता है क्योंकि…….

Question 10

"सदियों से ठण्डी बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।

दो राह समय के रथ का घर-घरे नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।"

Question 11

माँ के शुचि उपकारों का, जीवन में अन्त नहीं है।

निस्वार्थ साधना पथ पर, माँ जैसा सन्त नहीं है।। उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में मुख्य रूप से कौन-सा अलंकार लक्षित हो रहा है?

Question 12

‘अनुकरण सिद्दान्त’ किस पश्चिमी समीक्षक का सिद्दान्त है?

Question 13

साहित्य के इतिहास को जनता की चित्तवृत्तियों का इतिहास" किसने कहा है?

Question 14

'हिंदी भाषी जनता का प्रतिनिधि कवि' किस कवि को कहा गया है?

Question 15

प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन कब और कहाँ हुआ था?
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