यूपी टीजीटी हिंदी 2024 मिनी मॉक - 16
Attempt now to get your rank among 223 students!
Question 1
मेवाड़-केसरी देख रहा,
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़-दौड़ करता था रण,
वह मान-रक्त का प्यासा था।
चढ़कर चेतक पर घूम-घूम,
करता सेना रखवाली था ।
ले महामृत्यु को साथ-साथ
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट-काट
करता था सफल जवानी को।
Question 2
मेवाड़-केसरी देख रहा,
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़-दौड़ करता था रण,
वह मान-रक्त का प्यासा था।
चढ़कर चेतक पर घूम-घूम,
करता सेना रखवाली था ।
ले महामृत्यु को साथ-साथ
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट-काट
करता था सफल जवानी को।
Question 3
मेवाड़-केसरी देख रहा,
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़-दौड़ करता था रण,
वह मान-रक्त का प्यासा था।
चढ़कर चेतक पर घूम-घूम,
करता सेना रखवाली था ।
ले महामृत्यु को साथ-साथ
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट-काट
करता था सफल जवानी को।
Question 4
मेवाड़-केसरी देख रहा,
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़-दौड़ करता था रण,
वह मान-रक्त का प्यासा था।
चढ़कर चेतक पर घूम-घूम,
करता सेना रखवाली था ।
ले महामृत्यु को साथ-साथ
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट-काट
करता था सफल जवानी को।
Question 5
मेवाड़-केसरी देख रहा,
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़-दौड़ करता था रण,
वह मान-रक्त का प्यासा था।
चढ़कर चेतक पर घूम-घूम,
करता सेना रखवाली था ।
ले महामृत्यु को साथ-साथ
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट-काट
करता था सफल जवानी को।
Question 6
मनुष्य को जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है। इन संघर्षों में उसे समाज का अपेक्षित सहयोग भी मिलता है, किंतु यह सहयोग यदि अधिक मिलने लगे तो वह दूसरों पर निर्भर रहने का आदी हो जाता है। दूसरों पर उसकी निर्भरता उसकी परतंत्रता का भी कारण बन जाती है। दूसरे पर निर्भर रहकर व्यक्ति अपने जीवन के सुखों का वास्तविक उपभोग नहीं कर सकता, क्योंकि वह प्रायः हर कार्य अथवा वस्तु के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, इसलिए कहा गया है कि "पराधीन सपनेहूं सुख नाही" वास्तव में, स्वाबलंबन या आत्मनिर्भरता ही मनुष्य को स्वाधीन बनने की प्रेरणा देती है। स्वाबलंबन की स्थिति में व्यक्ति अपनी इच्छाओं को अपनी सुविधानुसार पूरा कर पाता है। उसे इससे लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती।
मनुष्य स्वभावतः सुख की चाह तो रखता है, लेकिन इसके लिए वह परिश्रम करने से यथासंभव बचने की कोशिश करता है। इसी कारण वह अपने कार्य एवं वस्तुओं के लिए दूसरों पर निर्भर होने लगता है। स्वाबलंबन केवल व्यक्ति के जीवन के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है। यदि मनुष्य प्रकृति पर ही निर्भर रहता है तो उसने जीवन के हर क्षेत्र में जो प्रगति हासिल किए हुए हैं उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाता। स्वाबलंबन ने ही मनुष्य को पशुओं से अलग किया है। हालांकि पशु स्वाभाविक रूप से अधिक स्वाबलंबी होते हैं फिर तू स्वावलंबी बनने की चाह मनुष्य में अधिक होती है। वह अपने जीवन में सुख की प्राप्ति के लिए हर प्रकार के साधन जुटाना चाहता है। इसके लिए उसे स्वयं परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ती है स्वावलंबी बनने की उसकी यही चाह उसकी प्रगति में सहायक बनती है।
दूसरे पर निर्भरता, हमें दूसरों का अनुकरण करने को बाध्य करते हैं। दूसरे पर निर्भर रहते हुए हमें उसकी मर्जी के अनुरूप जीने को बाध्य होना पड़ता है। इस कारण हमारी स्वभाविक सृजनशीलता एवं सोच की शक्ति नष्ट हो जाती है। हमारा आत्मविश्वास खत्म हो जाता है हमें लगने लगता है कि हम स्वयं कुछ नहीं कर सकते। ऐसी भावना के कारण हमारी उन्नति बाधित होती है।स्वयं परिश्रम से अर्जित की हुई संपत्ति के भोग का आनंद ही अलग होता है। दूसरों की कृपा पर जीने वाला व्यक्ति इस आनंद से सदा वंचित रहता है।
निम्न में से कौन सा कथन सही नहीं है?
Question 7
मनुष्य को जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है। इन संघर्षों में उसे समाज का अपेक्षित सहयोग भी मिलता है, किंतु यह सहयोग यदि अधिक मिलने लगे तो वह दूसरों पर निर्भर रहने का आदी हो जाता है। दूसरों पर उसकी निर्भरता उसकी परतंत्रता का भी कारण बन जाती है। दूसरे पर निर्भर रहकर व्यक्ति अपने जीवन के सुखों का वास्तविक उपभोग नहीं कर सकता, क्योंकि वह प्रायः हर कार्य अथवा वस्तु के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, इसलिए कहा गया है कि "पराधीन सपनेहूं सुख नाही" वास्तव में, स्वाबलंबन या आत्मनिर्भरता ही मनुष्य को स्वाधीन बनने की प्रेरणा देती है। स्वाबलंबन की स्थिति में व्यक्ति अपनी इच्छाओं को अपनी सुविधानुसार पूरा कर पाता है। उसे इससे लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती।
मनुष्य स्वभावतः सुख की चाह तो रखता है, लेकिन इसके लिए वह परिश्रम करने से यथासंभव बचने की कोशिश करता है। इसी कारण वह अपने कार्य एवं वस्तुओं के लिए दूसरों पर निर्भर होने लगता है। स्वाबलंबन केवल व्यक्ति के जीवन के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है। यदि मनुष्य प्रकृति पर ही निर्भर रहता है तो उसने जीवन के हर क्षेत्र में जो प्रगति हासिल किए हुए हैं उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाता। स्वाबलंबन ने ही मनुष्य को पशुओं से अलग किया है। हालांकि पशु स्वाभाविक रूप से अधिक स्वाबलंबी होते हैं फिर तू स्वावलंबी बनने की चाह मनुष्य में अधिक होती है। वह अपने जीवन में सुख की प्राप्ति के लिए हर प्रकार के साधन जुटाना चाहता है। इसके लिए उसे स्वयं परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ती है स्वावलंबी बनने की उसकी यही चाह उसकी प्रगति में सहायक बनती है।
दूसरे पर निर्भरता, हमें दूसरों का अनुकरण करने को बाध्य करते हैं। दूसरे पर निर्भर रहते हुए हमें उसकी मर्जी के अनुरूप जीने को बाध्य होना पड़ता है। इस कारण हमारी स्वभाविक सृजनशीलता एवं सोच की शक्ति नष्ट हो जाती है। हमारा आत्मविश्वास खत्म हो जाता है हमें लगने लगता है कि हम स्वयं कुछ नहीं कर सकते। ऐसी भावना के कारण हमारी उन्नति बाधित होती है।स्वयं परिश्रम से अर्जित की हुई संपत्ति के भोग का आनंद ही अलग होता है। दूसरों की कृपा पर जीने वाला व्यक्ति इस आनंद से सदा वंचित रहता है।
Question 8
मनुष्य को जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है। इन संघर्षों में उसे समाज का अपेक्षित सहयोग भी मिलता है, किंतु यह सहयोग यदि अधिक मिलने लगे तो वह दूसरों पर निर्भर रहने का आदी हो जाता है। दूसरों पर उसकी निर्भरता उसकी परतंत्रता का भी कारण बन जाती है। दूसरे पर निर्भर रहकर व्यक्ति अपने जीवन के सुखों का वास्तविक उपभोग नहीं कर सकता, क्योंकि वह प्रायः हर कार्य अथवा वस्तु के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, इसलिए कहा गया है कि "पराधीन सपनेहूं सुख नाही" वास्तव में, स्वाबलंबन या आत्मनिर्भरता ही मनुष्य को स्वाधीन बनने की प्रेरणा देती है। स्वाबलंबन की स्थिति में व्यक्ति अपनी इच्छाओं को अपनी सुविधानुसार पूरा कर पाता है। उसे इससे लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती।
मनुष्य स्वभावतः सुख की चाह तो रखता है, लेकिन इसके लिए वह परिश्रम करने से यथासंभव बचने की कोशिश करता है। इसी कारण वह अपने कार्य एवं वस्तुओं के लिए दूसरों पर निर्भर होने लगता है। स्वाबलंबन केवल व्यक्ति के जीवन के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है। यदि मनुष्य प्रकृति पर ही निर्भर रहता है तो उसने जीवन के हर क्षेत्र में जो प्रगति हासिल किए हुए हैं उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाता। स्वाबलंबन ने ही मनुष्य को पशुओं से अलग किया है। हालांकि पशु स्वाभाविक रूप से अधिक स्वाबलंबी होते हैं फिर तू स्वावलंबी बनने की चाह मनुष्य में अधिक होती है। वह अपने जीवन में सुख की प्राप्ति के लिए हर प्रकार के साधन जुटाना चाहता है। इसके लिए उसे स्वयं परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ती है स्वावलंबी बनने की उसकी यही चाह उसकी प्रगति में सहायक बनती है।
दूसरे पर निर्भरता, हमें दूसरों का अनुकरण करने को बाध्य करते हैं। दूसरे पर निर्भर रहते हुए हमें उसकी मर्जी के अनुरूप जीने को बाध्य होना पड़ता है। इस कारण हमारी स्वभाविक सृजनशीलता एवं सोच की शक्ति नष्ट हो जाती है। हमारा आत्मविश्वास खत्म हो जाता है हमें लगने लगता है कि हम स्वयं कुछ नहीं कर सकते। ऐसी भावना के कारण हमारी उन्नति बाधित होती है।स्वयं परिश्रम से अर्जित की हुई संपत्ति के भोग का आनंद ही अलग होता है। दूसरों की कृपा पर जीने वाला व्यक्ति इस आनंद से सदा वंचित रहता है।
Question 9
मनुष्य को जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है। इन संघर्षों में उसे समाज का अपेक्षित सहयोग भी मिलता है, किंतु यह सहयोग यदि अधिक मिलने लगे तो वह दूसरों पर निर्भर रहने का आदी हो जाता है। दूसरों पर उसकी निर्भरता उसकी परतंत्रता का भी कारण बन जाती है। दूसरे पर निर्भर रहकर व्यक्ति अपने जीवन के सुखों का वास्तविक उपभोग नहीं कर सकता, क्योंकि वह प्रायः हर कार्य अथवा वस्तु के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, इसलिए कहा गया है कि "पराधीन सपनेहूं सुख नाही" वास्तव में, स्वाबलंबन या आत्मनिर्भरता ही मनुष्य को स्वाधीन बनने की प्रेरणा देती है। स्वाबलंबन की स्थिति में व्यक्ति अपनी इच्छाओं को अपनी सुविधानुसार पूरा कर पाता है। उसे इससे लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती।
मनुष्य स्वभावतः सुख की चाह तो रखता है, लेकिन इसके लिए वह परिश्रम करने से यथासंभव बचने की कोशिश करता है। इसी कारण वह अपने कार्य एवं वस्तुओं के लिए दूसरों पर निर्भर होने लगता है। स्वाबलंबन केवल व्यक्ति के जीवन के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है। यदि मनुष्य प्रकृति पर ही निर्भर रहता है तो उसने जीवन के हर क्षेत्र में जो प्रगति हासिल किए हुए हैं उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाता। स्वाबलंबन ने ही मनुष्य को पशुओं से अलग किया है। हालांकि पशु स्वाभाविक रूप से अधिक स्वाबलंबी होते हैं फिर तू स्वावलंबी बनने की चाह मनुष्य में अधिक होती है। वह अपने जीवन में सुख की प्राप्ति के लिए हर प्रकार के साधन जुटाना चाहता है। इसके लिए उसे स्वयं परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ती है स्वावलंबी बनने की उसकी यही चाह उसकी प्रगति में सहायक बनती है।
दूसरे पर निर्भरता, हमें दूसरों का अनुकरण करने को बाध्य करते हैं। दूसरे पर निर्भर रहते हुए हमें उसकी मर्जी के अनुरूप जीने को बाध्य होना पड़ता है। इस कारण हमारी स्वभाविक सृजनशीलता एवं सोच की शक्ति नष्ट हो जाती है। हमारा आत्मविश्वास खत्म हो जाता है हमें लगने लगता है कि हम स्वयं कुछ नहीं कर सकते। ऐसी भावना के कारण हमारी उन्नति बाधित होती है।स्वयं परिश्रम से अर्जित की हुई संपत्ति के भोग का आनंद ही अलग होता है। दूसरों की कृपा पर जीने वाला व्यक्ति इस आनंद से सदा वंचित रहता है।
Question 10
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।
दो राह समय के रथ का घर-घरे नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।"
Question 11
निस्वार्थ साधना पथ पर, माँ जैसा सन्त नहीं है।। उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में मुख्य रूप से कौन-सा अलंकार लक्षित हो रहा है?
Question 12
Question 13
Question 14
Question 15
- 223 attempts
- 1 upvote
- 4 comments