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अनुच्छेद 21 (Article 21 in Hindi) – प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण

By BYJU'S Exam Prep

Updated on: September 25th, 2023

कोई भी मौलिक अधिकार आत्यन्तिक (absolute) नहीं है। वस्तुत: व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अस्तित्व एक सुव्यवस्थित समाज में ही सम्भव है। इसके लिए व्यक्ति के अधिकारों पर निर्बन्धन लगाना अति आवश्यक है, जिससे दूसरों के अधिकारों का हनन न हो। भारतीय संविधान में इसी बात को ध्यान में रखते हुए व्यक्ति के प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अधीन रखा गया है। राज्य युक्तियुक्त प्रक्रिया के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वाधीनता से वंचित कर सकता है।

अनुच्छेद 21: प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण

किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।

अनुच्छेद 21 में मूल तीन शब्द है:

  1. प्राण की स्वतंत्रता (Life)
  2. दैहिक स्वतंत्रता (Personal Liberty)
  3. विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Procedure Establish By Law)

एक चौथा शब्द भी 1978 के बाद देखने को मिलता है – “सम्यक विधि प्रक्रिया(Due Process of Law)”

1. प्राण की स्वतंत्रता (Right To Life)

प्राण की स्वतंत्रता शब्द से हमे यह समझते है की हमको जीने का अधिकार है बिना योग्य कारण किसी की जान नही ली जा सकती है, यह सोच सही पर अधूरी है, वास्तव में प्राण का अर्थ बहुत विस्तृत है।

खरक सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के केस में प्राण शब्द की व्याख्या करने की कोशिश की गई।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा की “अनुच्छेद 21 में लिखा हुआ प्राण शब्द केवल पशु(मनुष्य) के जीवन तक सिमित न होकर उन सभी सीमओं और सुविधाओं तक विस्तृत है जिसके द्वारा जीवन जिया जाता है”।

प्राण का अर्थ है मनुष्य को जीवन जीने के लिए आवश्यक सभी चींजे जैसे:- शुद्ध हवा, पानी, अनाज, रहने के लिए घर, आदि की पूर्ति का अधिकार।

अगर किसी व्यक्ति के पास खाने के लिए अनाज नही है तो उसके प्राण खतरे में और वह व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में जाके अनुच्छेद 21 अंतर्गत अधिकार मांग सकता है, और यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है की उसको अनाज दे।

ऐसे केस दर केस में अनुच्छेद 21 में नये अधिकार जुड़ते गए।

2. दैहिक स्वतंत्रता (Personal Liberty)

अनुच्छेद 21 में लिखित शब्द ‘दैहिक स्वतंत्रता’ के अधिकार में अनुच्छेद 19 के सभी अधिकार शामिल है।

उच्चतम न्यायालय ने गोपालन के विनिश्चय में दी हुई ‘दैहिक स्वतन्त्रता’ पदावली के शाब्दिक एवं सीमित अर्थ को अस्वीकार कर दिया और इसका बहुत व्यापक अर्थ लगाया है।

न्यायालय के अनुसार ‘दैहिक स्वतन्त्रता’ का अधिकार केवल ‘शारीरिक स्वतन्त्रता’ प्रदान करने तक सीमित न हो कर वे सभी प्रकार के अधिकार सम्मिलित हैं जो व्यक्ति की दैहिक स्वतन्त्रता को पूर्ण बनाते हैं।

अनुच्छेद 21 व्यक्ति को उसके निजी जीवन में किसी प्रकार के अप्राधिकृत हस्तक्षेप से संरक्षण प्रदान करता है,चाहे वे प्रत्यक्ष हों या अप्रत्यक्ष ।

अनुच्छेद 21 सभी प्रकार के मनोवैज्ञानिक अवरोधों (Psychological restrain) के विरुद्ध भी संरक्षण प्रदान करता है ।

अनुच्छेद 21 विधायिका तथा कार्यपालिका दोनों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है

गोपालन बनाम मद्रास राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया था कि अनुच्छेद 21 केवल कार्यपालिका के कृत्यों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है, विधान मंडल के विरुद्ध नहीं। अतएव विधान मण्डल कोई विधि पारित करके किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता से वंचित कर सकता है। किन्तु मेनका गाँधी बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने गोपालन के मामले में दिये अपने निर्णय को उलट दिया है और यह निर्णय दिया है कि अनुच्छेद 21 केवल कार्यपालिका के कृत्यों के विरुद्ध ही नहीं बल्कि विधायिका के विरुद्ध भी संरक्षण प्रदान करता है। विधान मण्डल द्वारा पारित किसी विधि के अधीन विहित प्रक्रिया, जो किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वाधीनता से वंचित करती है, उचित, ऋजु और युक्तियुक्त अर्थात् नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों के अनुरूप होनी चाहिए।

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